प्रस्तुत दुःख की कहानी आपको ठोस यथार्थवादी रचना है। इनमें एक ओर अभावग्रस्त लोगों की दारुण गरीबी का यथार्थ चित्रण हैं। आर्थिक विपन्नता के कारण बेहाल बेबस परिवार की हृदय विदारक कंगाली का वर्णन है। दूसरी तरफ उच्चमध्यम वर्गीय परिवार की औरत सब कुछ होते हुए भी, संतुष्ट न होकर अपने आपको दु: खी समझती हैं। दोनों ओर की 'दुःख' भरी परिस्थितियों का तुलनाकार कहानी का नायक है।
जिसे मनुष्य सर्वापेक्षा अपना समझ भरोसा करता है, जब उसी से अपमान और तिरस्कार प्राप्त हो, तब मन वितृष्णा से भर जाता है; एकदम मर जाने की इच्छा होने लगती है; इसे शब्दों में बता सकना सम्भव नहीं।
दिलीप ने हेमा को पूर्ण स्वतंत्रता दी थी। वह उसका कितना आदर करता था, कितनी आन्तरिकता से वह उसके प्रति श्रनुरक्त था। बहुत से लोग इसे 'अति' कहेंगे। इस पर भी जब वह हेमा को संतुष्ट न कर सका और हेमा केवल दिलीप के उसकी सहेली के साथ सिनेमा देख आने के कारण दिन-भर रूठी रहकर दूसरे ही दिन माँ के घर चली गई, तब दिलीप के मन में क्षोभ का अन्त न रहा।
सितम्बर का अन्तिम सप्ताह था। वर्षा की ऋतु बीत जाने पर भी दिन-भर पानी बरसता रहा। दिलीप बैठक की खिड़की और दरवाजों पर पर्दे डाले बैठा था। वितृष्णा और ग्लानि में समय स्वयं यातना बन जाता है। एक मिनट गुजरना मुश्किल हो जाता है। समय को बीतता न देख दिलीप खीझकर सो जाने का यत्न करने लगा। इसी समय जीने पर से छोटे भाई के धम-धम कर उतरते चले आने का शब्द सुनाई दिया। अलसाई हुई आँख को आधा खोल उसने दरवाजे की ओर देखा।
छोटे भाई ने पर्दे को हटाकर पूछा, "भाईजी, आपको कहीं जाना न हो तो मैं मोटर साइकिल ले जाऊँ?"
दीवार पर टंगे क्लाक ने कमरे को गुंजाते हुए छ: बज जाने को सूचना दी। दिलीप को अनुभव हुआ-क्या देह यों ही कैद में पड़ा रहेगा। उठकर खिड़की का पर्दा हटाकर देखा, बारिश थम गई थी। अब उसे दूसरा भय हुआ, कोई भी बैठेगा और अप्रिय चर्चा चला देगा।
वह उठा। भाई की साइकिल ले, गली के कीचड़ से बचता हुआ और उससे अधिक लोगों की निगाहों से छिपता हुआ वह मोरी दरवाजे से बाहर निकल, शहर की पुरानी फसील के बाग से होता हुआ मिंटो पार्क जा पहुँचा। उस लम्बे-चौड़े मैदान में पानी से भरी घास पर पछुवा के तेज झोंकों में ठिठुरने के लिए उस समय कौन आता!
उस एकांत में एक बेंच के सहारे साइकिल खड़ी कर वह बैठ गया। सिर से टोपी उतार बेंच पर रख दी। सिर में ठण्ड लगने से मस्तिष्क की व्याकुलता कुछ कम हुई।
ख्याल आया, यदि ठण्ड लग जाने से वह बीमार हो जाए, उसकी हालत खराब हो जाए, तो वह चुपचाप शहीद की तरह अपने दुःख को अकेला ही सहेगा। किसी को ' अपने दुःख का भाग लेने के लिए न बुलाएगा। एक दिन मृत्यु दबे पाँव आएगी और उसके रोग के कारण, हृदय की व्यथा और रोग को ले, उसके सिर पर सांत्वना का हाथ फेर उसे शांत कर चली जाएगी। उस दिन जो लोग रोने बैठें, उनमें हेमा भी होगी। उस दिन उसे खोकर हेमा अपने नुकसान का अन्दाजा कर अपने व्यवहार के लिए पछताएगी। यही बदला होगा। दिलीप के चुपचाप दुःख सहते जाने का विचार कर उसने सन्तोष का एक दीर्घ नि: श्वास लिया। करवट बदल ठंडी हवा खाने के लिए वह बैठ गया।
समीप तीन फर्लाग तक मुख्य रेल्वे लाईन से कितनी ही गाड़ियाँ गुजर चुकी थीं, उधर दिलीप का ध्यान न गया था। अब जब फ्रंटियर मेल तूफान तीव्र वेग से कोलाहल करती हुई गुज़री तो दिलीप ने उस और देखा। लगातार फर्स्ट और सेकण्ड के डिब्बों से निकलने वाले तीव्र प्रकाश से वह समझ गया फ्रंटियर मेल जा रही है, साढ़े नौ बज गए।
स्वयं सहे अन्याय के प्रतिकार की एक सम्भावना देख उसका मन हल्का हो गया था। वह लौटने के लिए उठा। शरीर में कुछ शैथिल्य बाकी रहने के कारण साइकिल पर न चढ़ वह पैदल-पैदल बागोबाग, बादशाही मस्जिद से टकसाली दरवाजे और टकसाली से भाटी दरवाजे पहुँचा। मार्ग में शायद ही कोई व्यक्ति दिखाई दिया हो। सड़क-किनारे स्तब्ध खड़े बिजली के लैम्प निष्काम और निर्विकार भाव से अपना प्रकाश सड़क पर डाल रहे थे। मनुष्यों के अभाव की कुछ भी परवारह न कर लाखों पतंगे गोले बांध-बांधकर, इन लैम्पों के चारों ओर नृत्य कर रहे थे और जगत् के यह अद्भुत नमूने थे। प्रत्येक पतंगा एक नक्षत्र की भांति अपने मार्ग पर चक्कर काट रहा था। कोई छोटा, कोई बड़ा दायरा बना रहा था कोई दायें को, कोई बायें को, कोई आगे को, कोई विपरीत गति में निरंतर चक्कर काटते चले जा रहे थे। कोई किसी से टकराता नहीं। वृक्षों के भीगे पत्ते बिजली के प्रकाश में चमचमा रहे थे।
एक लैम्प के नीचे से आगे बढ़ने पर उसकी छोटी परछाई उसके आगे फैलती चलती। ज्यों-ज्यों वह लैम्प से आगे बढ़ता, परछाइ पलटकर पीछे हो जाती। बीच-बीच में वृक्षों की टहनियों की परछाई उसके ऊपर से होकर निकल जाती। सड़क पर पड़ा प्रत्येक भीगा पत्ता लैम्पों की किरणों का उत्तर दे रहा था। दिलीप सोच रहा था-मनुष्य के बिना भी संसार कितना व्यस्त और रोचक है।
कुछ कदम आगे बढ़ने पर सड़क किनारे नीबू के वृक्षों की छाया ने कोई श्वेत-सी चीज़ दिखाई दी। कुछ और बढ़ने पर मालूम हुआ, कोई छोटा-सा लड़का सफेद कुर्ता पायजामा पहिरे एक थाली सामने रखे कुछ बेच रहा है।
बचपन में गली-मुहल्ले के लड़कों के साथ उसने अक्सर खोमचेवाले से सौदा खरीदकर खाया था। अब वह इन बातों को भूल चुका था। परन्तु इस सदी में सुनसान सड़क पर, जहाँ कोई आनेवाला नहीं, यह खोमचा बेचनेवाला कैसे बैठा है?
खोमचेवाले से क्षुद्र शरीर और आयु ने भी उसका ध्यान आकर्षित किया। उसने देखा, रात में सौदा बेचने निकलने वाले इस सौदागर के पास मिटटी के तेल की ठिबरी तक नहीं। समीप आकर उसने देखा, वह लड़का सर्द हवा में सिकुड़कर बैठा था। दिलीप के समीप आने पर उसने आशा की एक निगाह उसकी ओर डाली ओर फिर आँखें झुका लीं।
दिलीप ने और ध्यान से देखा। लड़के के मुख पर खोमचा बेचनेवालों की चतुरता न थी, बल्कि उसकी जगह थी एक कायरता। उसकी थाली भी खोमचे का थाल न होकर घरेलू व्यवहार की एक मामूली हल्की मुरादाबादी थाली थी। तराजू भी न थी। थाली में कागज़ के आठ टुकड़ों पर पकौड़ो की बराबर-बराबर ढेरियाँ लगाकर रख दी गई थी।
दिलीपने सोचा, इस टण्डी रात में हमी दो व्यक्ति बाहर हैं। वह उसके पास जाकर ठिठक गया। मनुष्य-मनुष्य में कितना भेद होता है! परन्तु मनुष्यत्व एक चीज है जो कभी-कभी भेद की सब दीवारों को लांघ जाती है। दिलीप को समीप खड़े होते देख लड़के ने कहा :
"एक-एक पैसे में एक-एक ढेरी।"
एक क्षण चुप रहकर दिलीप ने पूछा "सबके कितने पैसे?" बच्चे ने उँगली से हेरियों को गिनकर जवाब दिया, "आठ पैसे।" दिलीप ने केवल बात बढ़ाने के लिए पूछा "कुछ कम नहीं कर लेगा?"
सौदा बिक जाने की आशा से जी प्रफुल्लता बालक के चेहरे पर आ गई थी, वह दिलीप के इस प्रश्न से उड़ गई. उसने उत्तर दिया, "माँ बिगड़ेगी।" (Sad Story in Hindi)
इस उत्तर से दिलीप द्रवित हो गया और बोला "क्या पैसे माँ को देगा?" बच्चे ने हामी भरी।
दिलीप ने कहा, "अच्छा, सब दे दो।"
लड़के की व्यस्तता देख दिलीप ने अपना रूमाल निकालकर दे दिया और पकौड़े उसमें बंधवा लिए।
आठ पैसे का खोमचा बेचने जो इस सर्दी में निकला है उसके पर की क्या आवस्था होगी? यह सोचकर दिलीप सिहर उठा। उसने जेब से एक रुपया निकाल लड़के की थाली में डाल दिया। रुपये की खनखनाहट से वह सुनसान रात गूंज उठी। रुपये को देख लड़के, "मेरे पास तो पैसे नहीं हैं?"
दिलीप ने पूछा, "तेरा घर कहा हैं?"
"पास ही गली में हैं।" लड़के ने जवाब दिया।
दिलीप मन में उसका घर देखने का कुतूहल जाग उठा। बोला, "चलो, मुझे भी उधर ही जाना हैं। रास्ते में तुम्हारे घर से पैसे ले लूँगा।"
बच्चे ने घबराकर कहा, "पैसे तो घर पर भी नहीं होंगे।"
दिलीप सुनकर सिहर उठा, परंतु उत्तर दिया, "होंगे, तुम चलो।"
लड़का खाली थाली को छाती से चिपटा आगे-आगे चला और उसके पीछे बाईसिकल को थामे दिलीप।
दिलीप ने पूछा, "तेरा बाप क्या करता है?"
लड़के ने उत्तर दिया, "बाप मर गया है।"
दिलीप चुप हो गया। कुछ और दूर जा उसने पूछा, "तुम्हारी माँ क्या करती है?"
लड़के ने उत्तर दिया, "माँ एक बाबू के यहाँ चौका-बर्तन करती थी; अब बाबू ने हटा दिया।"
दिलीप ने पूछा, "क्यों हटा दिया बाबू ने? "
लड़के ने जवाब दिया," माँ अढ़ाई सौ रुपया महीना लेती थी, जगत् की माँ ने बाबू से कहा कि वह दो सौ रुपय में सब काम कर देगी। इसलिए बाबू की घरवाली ने माँ को हटाकर जगतू की माँ को रख लिया।
"दिलीप फिर चुप हो गया। लड़का नंगे पैर गली के कीचड़ में छपछप करता चला जा रहा था। दिलीप को कीचड़ से बचकर चलने में असुविधा हो रही थी। लड़के की चाल की गति को कम करने के लिए दिलीप ने फिर प्रश्न किया," तुम्हें जाड़ा नहीं मालूम होता!
"लड़के ने शरीर की गरम करने के लिए चाल को और तेज करते हुए उत्तर दिया," नहीं। "
दिलीप ने फिर प्रश्न किया "जगत की माँ क्या करती थी?"
लड़के ने कहा, "जगतू की माँ स्कूल में लड़कियों को घर से बुला लाती थी। स्कूल वालों ने लड़कियों को घर से लाने के लिए मोटर रख ली है उसे निकाल दिया।"
गली के मुख पर कमीटी का बिजली का लैम्प जल रहा था। ऊपर की मंजिल की खिड़कियों से भी गली में कुछ प्रकाश पड़ रहा था। उससे गली का कीचड़ चमककर किसी कदर मार्ग दिखाई दे रहा था।
संकरी गली में एक बड़ी खिड़की के आकार का दरवाजा खुला था? उसका धुंधला लाल—सा प्रकाश सामने पुरानो ईंटों की दीवार पर पड़ रहा था, इसी दरवाजे में लड़का चला गया।
दिलीप ने झांककर देखा, मुश्किल से आदमी के कद की ऊँचाई की कोठरी में-जैसी प्रायः शहरों में ईंधन रखने के लिए बनी रहती हैं-धुआँ उगलती मिट्टी के तेल की ढिबरी अपना धुंधला लाल प्रकाश फैला रही थी। एक छोटी चारपाई, जैसी कि श्राद्ध में महाब्राह्मणों को दान दी जाती है, काली दीवार के सहारे खड़ी थी। उसके पाये से दो-एक मैले कपड़े लटक रहे थे। एक क्षीणकाय, आधेड़ उम्र की स्त्री मैली-सी धोती में शरीर लपेटे बैठी थी।
बेटे को देख स्त्री ने पूछा, "सौदा बिका बेटा?"
लड़के ने उत्तर दिया, "हाँ माँ," और रुपया माँ के हाथ में देकर कहा, "बाकी पैसे बाबू को देने हैं।"
रुपया हाथ में ले माँ ने विस्मय से पूछा, "कौन बाबू, बेटा? ''
बच्चे ने उत्साह से कहा," बाइसिकल वाले बाबू ने सब सौदा लिया हैं। उसके पास छुट्टे पैसे नहीं थे। बाबू गली में खड़ा है।"
घबराकर माँ बोली, "रुपये के पैसे, कहाँ मिलेंगे बच्चा?" सिर के कपड़े को संभाल दिलीप को सुनाने के अभिप्राय से माँ ने कहा, "बेटा, रुपया बाबूजी को लौटाकर घर का पता पूछ ले, पैसे कल आना।"
लड़का रुपया दिलीप को लौटाने आया। दिलीप ने ऊँचे स्वर से, ताकि माँ सुन ले, कहा, "रहने दो रुपया, कोई परवाह नहीं, फिर आ जाएगा।"
सिर के कपड़े को आगे खींच स्त्री ने कहा, "नहीं जी, आप रुपया लेते जाइए, बच्चा पैसे कल ले आएगा।"
दिलीप ने शरमाते हए कहा, "रहने दीजिए, यह पैसे मेरी तरफ से बच्चे को मिठाई खाने के लिए रहने दीजिए."
'स्त्री नहीं-नहीं करती रह गई.' दिलीप अँधेरे में पीछे हट गया।
स्त्री के मुरझाए, कुम्हलाए, पीले चेहरे पर कृतज्ञता और प्रसन्नता की झलक छा गई. रुपया आपनी चादर की खूट में बांध एक ईंट पर रखे पीतल के लोटे से बाँह के इशारे से पानी ले उसने हाथ धो लिया और पीतल के एक बेले के नीचे से मैले अंगोछे में लिपटी रोटी निकाल, बेटे का हाथ धुला उसे खाने को दे दी। (Sad Story in Hindi)
बेटा तुरन्त की कमाई से पुलकित हो रहा था। मुँह बनाकर कहा, "उ-उं, रूखी रोटी!"
माँ ने पुचकारकर कहा, "नमक डाला हुआ है, बेटा।"
बच्चे ने रोटी जमीन पर डाल दी और ऐंठ गया, सुबह भी रूखी रोटी-हाँ, रोज़-रोज़ रूखी।
"हाथ आँखों पर रख बच्चा मुँह फैलाकर रोना ही चाहता था, माँ ने उसे गोद में खींच लिया और कहा," मेरा राजा बेटा, सुबह ज़रूर दाल खिलाऊँगी। देख, बाबू तेरे लिए रुपया दे गए हैं। शाबाश! "
" सुबह मैं तुझे खूब सौदा बना दूंगी, फिर तू रोज दाल खाना। "
बेटा रीझ गया। उसने पूछा, "माँ, तूने रोटी खा ली?"
खाली अंगोछे को तहाते हुए माँ ने उत्तर दिया, "हाँ बेटा मुझे भूख नहीं है, तू खा ले!"
भूखी माँ का बेटा बचपन के कारण रूठा था। परन्तु माँ की बात के बावजूद घर की हालत से परिचित था। उसने अनिच्छा से एक रोटी माँ की और बढ़ाकर कहा, "एक रोटी तू खा ले।"
माँ ने स्नेह से पुचकारकर कहा, "नहीं बेटा, मैंने सुबह देर से खाई थी, मुझे अभी भूख नहीं, तू खा।"
दिलीप के लिए और देख सकना सम्भव न था। दांतों से होंठ दबा वह पीछे हट गया।
मकान पर आकर वह बैठा ही था, नौकर ने आ, दो भद्रपुरुषों के नाम बताकर कहा, आए थे, बैठकर चले गए. खाना तैयार होने की सूचना दी। दिलीप ने उसकी ओर बिना देखे ही कहा, "भूख नहीं।" उसी समय उसे लड़के की माँ का भूख नहीं ' कहना याद आ गया।
नौकर ने विनीत स्वर में पूछा, "थोड़ा दूध ले आऊँ?"
दिलीप को गुस्सा आ गया। उसने विद्रूपता से कहा, "क्यों, भूख न हो तो दूध पिया जाता है ?.... दूध ऐसी फालतू चीज़ है?"
नौकर कुछ न समझ विस्मित खड़ा रहा।
दिलीप ने खीझकर कहा "जाओ जी।"
मिट्टी के तेल की ढिबरी के प्रकाश में देखा वह दृश्य उसकी आँखों के सामने से हटना न चाहता था।
छोटे भाई ने आकर कहा, "भाभी ने यह पत्र भेजा है।" और लिफाफा दिलीप की ओर बढ़ा दिया।
दिलीप ने पत्र खोला। पत्र की पहली लाइन में लिखा था, "मैं इस जीवन में दुःख ही देखने के लिए पैदा हुई हूँ... " दिलीप ने आगे न पढ़, पत्र फाड़कर फेंक दिया। उसके माथे पर बल पड़ गए. उसके मुंह से निकलाः
" काश! तुम जानती, दुःख किसे कहते हैं। .... तुम्हारा यह रसीला दु: ख तुम्हें न मिले तो ज़िन्दगी दूभर हो जाए।"
Note: इस वार्ता(story) को किस लेखक(author) ने लिखा है वो में जनता नही हु, अगर आप कोई जानते हो तो Comment Box में जरूर लिखे।
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मित्रो, मै आशा करता हु की आपको हमारी यह दुःख की कहानी और Sad Story in Hindi पोस्ट पसंद आयी होगी। ऐसी ही मजेदार कहानिया पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट jaduikahaniya.com की मुलाकात लेते रहिए।
It's a great story
ReplyDeleteWho is the author of this story?
ReplyDeleteYashpal
Deletei don't know who is the author of this story.
DeleteThis comment has been removed by the author.
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